जगन्नाथ…जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है जगत (ब्रह्मांड) के नाथ (स्वामी)। नाम तो है जगन्नाथ लेकिन ना ही भुजाएं हैं ना ही हैं हथेलियां और ना ही हैं पैर…हैं तो सिर्फ बड़ी बड़ी आंखें जो भक्तों को भवसागर से पार लगाने के लिए पर्याप्त हैं। सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथ जैसे विष्णु पुराण, नारद पुराण व हरिवंश पुराण और बाद में संस्कृत और ओडिया भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं में भगवान जगन्नाथ के विषय में विस्तार से विवरण दिया गया है।
जगन्नाथ जी का मंदिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर में स्थित है जो सनातन धर्म के सप्त पुरियों में से एक है। भगवान जगन्नाथ को महाप्रभु के नाम से भी जाना जाता है। पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर में भगवान बलभद्र, भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और चक्र सुदर्शन के चार दारु विग्रह (लकड़ी के विग्रह) में पूजा होती है। वर्ष में एक बार महाप्रभु आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को यात्रा पर निकलते हैं जिसे रथ यात्रा या श्री गुंडिचा यात्रा कहते हैं जो सबसे प्रसिद्ध है। आज 7 जुलाई को भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ यात्रा पर निकलेंगे।
भव्य और अविस्मरणीय होती है रथ यात्रा
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को होने वाली रथ यात्रा उत्सव की तैयारियां महीनों पहले से शुरू हो जाती है। द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ, अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विशाल रथों पर सवार होकर गोंडिचा मंदिर तक जाते हैं। पुरी में रथ यात्रा में शामिल होने के लिए भारत ही नहीं अपितु विश्व भर से श्रद्धालु लाखों की संख्या में आते हैं। रथ यात्रा के दौरान पुरी का दृश्य मनमोहक होता है और यह अनुभव हर श्रद्धालु के लिए सदैव के लिए अविस्मरणीय हो जाता है। रथों को भव्य तरीके से सजाया जाता है और इन्हें खींचने के लिए लाखों भक्त अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। रथ यात्रा एक ऐसा अवसर है जिसमें सभी जाति और धर्म के लोग समान भाव से भाग लेते हैं।
बनाए जाते हैं तीन विशाल रथ
नंदीघोष रथ
ये भगवान जगन्नाथ का रथ होता है जिसे चंदन, ताल और धौरा की लकड़ी से बनाया जाता है। इसकी ऊंचाई 44 फीट है जिसे बनाने में 832 लकड़ियों का उपयोग हुआ है। इस रथ के सारथी का नाम दारुक होता है। रथ पर लगी ध्वजा का नाम त्रिलोक्यमोहिनी है। रथ में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल होते हैं। वहीं, जिस रस्सी से रथ को खींचा जाता है उसका नाम शंखचूड़ नागिनी है।
तालध्वज रथ
ये भगवान बलभद्र का रथ होता है जिसे सरंगा की लकड़ी से बनाया जाता है। इसकी ऊंचाई 43 फीट है जिसे बनाने के लिए 763 लकड़ियों का उपयोग हुआ है। वहीं, बलराम जी के रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है उसका नाम बासुकी नागा है। इस रथ की ध्वजा का नाम उनानी हैं। बलराम जी के रथ के सारथी का नाम मताली होता है।
दर्पदलन रथ
ये सुभद्रा मैया का रथ होता है जिसे कड़ीरू के लकड़ी से बनाया जाता है। इसकी ऊंचाई 42 फीट है जिसे बनाने के लिए 593 लकड़ियों का उपयोग हुआ है। वहीं, सुभद्रा मैया के रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है उसका नाम स्वर्णचुड़ा नागिनी है। इस रथ के सारथी का नाम अर्जुन होता है। इनके रथ की ध्वजा का नाम नदंबिका है।
पुरी को ही कहते हैं पुरुषोत्तम क्षेत्र
स्कंद पुराण के अनुसार पवित्र श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र को भगवान विष्णु का निवास स्थल माना जाता है और यहां पवित्र विग्रह स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा स्थापित किए गए थे। स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में महाप्रभु जगन्नाथ को भगवान पुरुषोत्तम भी कहा गया है। इसी वजह से उनके पवित्र निवास स्थान पुरी का नाम भगवान के नाम पर पुरुषोत्तम क्षेत्र पड़ा है। ब्रह्म पुराण के अनुसार, पुरुषोत्तम क्षेत्र दस योजन (90 मील) में फैला हुआ है तथा इसकी चौड़ाई पांच कोस (दस मील) है।
नीलांचल और मर्त्य-वैकुंठ भी है पुरी
स्कंद पुराण में पुरी के इस पवित्र क्षेत्र को ‘शंख-क्षेत्र’, ‘उड्डियान-पीठ’, ‘दशावतार-क्षेत्र’, ‘मर्त्य-वैकुंठ’ यानि मृत्यु लोक का वैकुंठ सहित आदि नामों से भी जाना जाता है। वहीं, भगवान श्रीकृष्ण के श्याम नील रंग के कारण पुरी को नीलांचल भी कहते हैं।
कौन हैं नीलमाधव
महाप्रभु जगन्नाथ को ही नीलमाधव कहते हैं और उनका वर्ण श्याम होने के चलते पुरी को नीलांचल भी कहते हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, द्वापर युग में भील कबीले के जरा नामक बहेलिये ने जब श्रीकृष्ण के पैर में तीर मार दिया था जिसके बाद भगवान वैकुंठ वापस चले गए थे। इसके बाद अर्जुन ने उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार श्रीकृष्ण के एकमात्र जीवित बचे पोते वज्रनाभ से कराया था।
ऐतिहासिक कथाओं के अनुसार, अंतिम संस्कार के बाद श्रीकृष्ण का पूरा शरीर तो जल गया परंतु उनका हृदय बच गया जिसे तीर मारने वाले जरा बहेलिये ने उठा लिया था और विग्रह रूप में कृष्ण मानकर उनकी भक्ति करने लगा। इसी जरा बहेलिये के भील कबीले की कई पीढ़ियां नीलमाधव विग्रह की पूजा करते आ रही थीं जिसे बाद पुरी के मंदिर में दारु-विग्रह यानि लड़की विग्रह के रूप में स्थापित किया गया है।
नारद जी ने की थी प्रार्थना
प्राचीन मान्याताओं के अनुसार, बलराम व सुभद्रा की मां रोहिणी से भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियों सत्यभामा और जाम्बवंती ने जब श्रीकृष्ण लीलाओं के बारे में पूछा तब माता रोहिणी को सुभद्रा के सामने लीलाओं के बारे में बताना उचित नहीं लगा और उन्हें बाहर भेज दिया। देवी सुभद्रा बाहर तो चली गईं लेकिन उसी समय वहां पर श्रीकृष्ण और बड़े भाई बलराम भी आ गए।
इसके बाद तीनों भाई-बहन छिपकर माता रोहिणी की कथाएं सुनते हैं इतने में वहां पर उसी समय देवऋषि नारद जी आ गए और तीनों भाई-बहन को एक संग देखकर अत्यंत प्रफुल्लित हो उठे और प्रभु से कहा कि मेरी यह कामना है कि आप तीनों भाई-बहन ऐसे ही सदैव एक संग रहें। देवऋषि नारद की प्रार्थना सुनकर श्रीकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद दिया और तब से पुरी में भगवान जगन्नाथ के मंदिर में तीनों (महाप्रभु, बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा) एक साथ विराजमान हैं।
पौराणिक उत्पत्ति की कथा
पुरी की पौराणिक उत्पत्ति और पुरुषोत्तम के मंदिर का वर्णन ब्रह्म पुराण, नारद पुराण और स्कंद पुराण के उत्कल खंड (पुरुषोत्तम महात्म्य) में स्पष्ट रूप से किया गया है। इन तीनों पुराणों में स्कंद पुराण का वर्णन अधिक विस्तृत है। स्कंद पुराण के अनुसार, सत्य युग में इंद्रद्यमन नामक एक राजा जो मालव देश पर शासन करते थे और वो भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार उन्हें दक्षिण सागर के तट पर अपने पारिवारिक पुरोहितों और तीर्थयात्रियों से पुरुषोत्तम के बारे में पता चला। उन्हें बताया गया कि नीलांचल (नीली पहाड़ी) पर एक आदिवासी कबीले के व्यक्ति सबरा द्वारा नीले नीलम से बनी वासुदेव की छवि की पूजा की जा रही है।
राजा इंद्रद्यमन ने पारिवारिक पुरोहित से परामर्श करके विद्यापति (पुजारी के भाई) को उस स्थल का पता लगाने के लिए नियुक्त किया। हालांकि शुरू में वह अनिच्छुक था परंतु बाद में विश्वबासु उसे देवता के पास ले जाने के लिए सहमत हो गया क्योंकि उसे यह भविष्यवाणी याद आ गई थी कि आने वाले वर्षों में नीलमाधव को राजा इंद्रद्युम्न द्वारा पवित्र किया जाएगा। भगवान की कृपा से विद्यापति को नीलमाधव के दिव्य दर्शन हुए। इसके अलावा उन्होंने रोहिणी कुंड (दिव्य तालाब) और उसके आसपास कल्पबता (दिव्य बरगद का पेड़) भी देखा था।
राजा इंद्रद्युम्न ने बनाई थी यह योजना
विद्यापति के अनुभव को सुनने के बाद राजा इंद्रद्युम्न ने अपने परिवार, मंत्रियों और पुजारियों के साथ पुरुषोत्तम के पूजा स्थल पर जाने की योजना बनाई। ब्राह्मण द्वारा इंद्रद्युम्न की सहायता के लिए नियुक्त किए गए नारद भी उनके साथ शामिल हो गए। ब्राह्मण को पता था कि भविष्य में भगवान (विष्णु) नीलमदभ की अपनी वर्तमान छवि को छिपा लेंगे और एक लकड़ी की मूर्ति धारण करके पुरुषोत्तम के रूप में खुद को प्रकट करेंगे।
वहां पहुंचकर राजा ने एक हजार अश्वमेध यज्ञ किए और उसमें अंतिम आहुति देने से पहले समुद्र के किनारे लकड़ी का एक विशाल दिव्य लट्ठा प्रकट हुआ। राजा ने नारद मुनि की सलाह पर लकड़ी के दिव्य लट्ठे को महावेदी (एक ऊंची वेदी) में लाकर स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने कल्पवट के पास एक मंदिर बनवाया। नारद मुनि की सलाह पर वे फिर ब्रह्मलोक गए और ब्राह्मण ने आकर मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की। वहां मूर्तियां स्थापित की गईं। इसके बाद इंद्रद्युम्न ने भगवान के आदेशानुसार दैनिक और विशेष उत्सव अनुष्ठान शुरू किए।