भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी (Ananta Chaturdashi) कहते हैं। इस दिन अनंत भगवान की पूजा की जाती है और अलोना (नमकरहित) व्रत रखा जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथि ली जाती है। पूर्णिमा का समायोग होने से इसका फल और बढ़ जाता है।
उदये त्रिमुहूर्तापि ग्राह्यानन्तव्रते तिथिः । पौर्णमास्याः समायोगे व्रतं चानन्तकं चरेत् ॥
अनंत चतुर्दशी व्रत-विधान
व्रती को चाहिये कि पकवान का नैवेद्य लेकर किसी पवित्र नदी या सरोवर तट पर जाय और वहां स्नान के बाद व्रत के लिये निम्न संकल्प करें- ‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्त- प्रीतिकामनया अनंतव्रतमहं करिष्ये ।’ ऐसा संकल्प कर यथा सम्भव नदी तट पर भूमि को गोबर से लीपकर वहां कलश स्थापितकर उसकी पूजा करे।
तत्पश्चात् कलश पर शेषशायी भगवान् विष्णु की मूर्ति रखें और मूर्ति के सम्मुख चौदह ग्रन्थियुक्त अनंतसूत्र (डोरा) रखे। इसके बाद ‘ॐ अनंताय नमः’ इस नाम- मन्त्र से भगवान विष्णुसहित अनंत सूत्र का षोडशोपचार पूर्वक पूजन करें। इसके बाद उस पूजित अनंतसूत्र को निम्न मन्त्र पढ़कर पुरुष दाहिने हाथ और स्त्री बायें हाथ में बांध लें-
अनंतसंसारमहासमुद्रे, मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव ।
अनंतरूपे विनियोजितात्मा, ह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते ॥
अनंत सूत्र बांधने के अनंतर ब्राह्मण को नैवेद्य देकर स्वयं ग्रहण करना चाहिये और भगवान नारायणका ध्यान करते हुए घर जाना चाहिये। पूजा के अनंतर परिवारजनों के साथ इस व्रत की कथा सुननी चाहिये तथा निम्न मन्त्रोंसे भगवान् अनंतकी प्रार्थना करनी चाहिये-
नमस्ते देवदेवेश नमस्ते धरणीधर।
नमस्ते सर्वनागेन्द्र नमस्ते पुरुषोत्तम ।।
न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि यानीह कर्माणि मया कृतानि।
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व दाता च प्रयाहि तुष्टः पुनरागमाय ।।
विष्णुर्भगवाननन्तः प्रतिग्रहीता च स एव विष्णुः।
तस्मात्त्वया सर्वमिदं ततं च प्रसीद देवेश वरान् ददस्व ॥
अनंत व्रत कथा की पौराणिक कथा
प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के एक वसिष्ठगोत्रीय मुनि थे। उनकी पुत्री का नाम शीला था। पुत्री यथा नाम तथा गुण अर्थात् अत्यन्त सुशील थी। सुमन्तु ने उसका विवाह कौण्डिन्य मुनि के साथ किया था। शीला ने भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत भगवान का व्रत किया और अनंत सूत्र को अपने बायें हाथ में बांध लिया।
भगवान अनंत की कृपा से शीला और कौण्डिन्य के घर में सभी प्रकार की सुख-समृद्धि आ गयी और उनका जीवन सुखमय हो गया। दुर्भाग्यवश एक दिन कौण्डिन्य मुनि ने क्रोध में आकर शीला के हाथ में बंधा अनंतसूत्र तोड़कर आग में फेंक दिया। इससे उनकी सब धन-सम्पत्ति नष्ट हो गयी और वे बहुत दुःखी रहने लगे।
एक दिन अत्यन्त दुःखी होकर कौण्डिन्य मुनि वन में चले गये और वहां वृक्षों, लताओं, जीव-जन्तुओं-सबसे अनंत भगवान का पता पूछते रहे। दयानिधान भगवान् अनंत ने वृद्ध ब्राह्मण के रूप में कौण्डिन्य मुनि को दर्शन दिया और उनसे अनंत व्रत करने को कहा। शीला और कौण्डिन्य मुनि दोनों ने अनंत व्रत को किया और पुनः वे सुख-समृद्धिपूर्वक रहने लगे।
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