पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखण्ड आदि प्रान्तों में भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा के लिए बड़ी श्रद्धा, विश्वास और लगन के साथ हरितालिका व्रत (तीज) का उत्सव मनाती हैं। जिस त्याग तपस्या और निष्ठा के साथ स्त्रियां यह व्रत रखती हैं, वह बड़ा ही कठिन है।
इसमें फलाहार-सेवन की बात तो दूर रही, निष्ठा वाली स्त्रियां जल तक नहीं ग्रहण करतीं। व्रत के दूसरे दिन प्रातः काल स्नान के पश्चात् व्रतपरायण स्त्रियां सौभाग्य द्रव्य एवं वायन छूकर ब्राह्मणों को देती हैं। इसके बाद ही जल आदि पीकर पारण करती हैं। इस व्रत में मुख्यरूप से शिव-पार्वती तथा गणेशजी का पूजन किया जाता है।
हरितालिका को सबसे पहले देवी पार्वती ने किया
इस व्रत को सर्वप्रथम गिरिराज नन्दिनी उमा ने किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान् शिव पति रूप में प्राप्त हुए थे। इस व्रत के दिन स्त्रियां वह कथा भी सुनती हैं, जो पार्वतीजी के जीवन में घटित हुई थी। उसमें पार्वती के त्याग, संयम, धैर्य तथा एकनिष्ठ पातिव्रत धर्मपर प्रकाश डाला गया है, जिससे सुनने वाली स्त्रियों का मनोबल ऊंचा उठता है।
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हरितालिका की सबसे पौराणिक कथा
कहते हैं, दक्षकन्या सती जब पिता के यज्ञ में अपने पति शिवजी का अपमान न सहन कर योगाग्निमें दग्ध हो गयीं, तब वे ही मैना और हिमवान की तपस्या के फलस्वरूप उनकी पुत्री के रूप में पार्वती के नाम से पुनः प्रकट हुईं। इस नूतन जन्म में भी उनकी पूर्व की स्मृति अक्षुण्ण बनी रही और वे नित्य-निरन्तर भगवान् शिवके ही चरणार विन्दों के चिन्तन में संलग्न रहने लगीं। जब वे कुछ वयस्क हो गयीं तब मनो-अनुकूल वर की प्राप्ति के लिए पिता की आज्ञा से तपस्या करने लगीं।
उमा ने वर्षों तक की कठोर तपस्या
उन्होंने वर्षों तक निराहार रहकर बड़ी कठोर साधना की। जब उनकी तपस्या फलोन्मुख हुई, तब एक दिन देवर्षि नारद जी महाराज गिरिराज हिमवान के यहां पधारे। हिमवान ने अहोभाग्य माना और देवर्षि की बड़ी श्रद्धा के साथ आवभगत की। कुशल-क्षेम के पश्चात् नारदजी ने कहा- भगवान् विष्णु आपकी कन्या का वरण करना चाहते हैं, उन्होंने मेरे द्वारा यह संदेश कहलवाया है। इस सम्बन्ध में आपका जो विचार हो उससे मुझे अवगत कराए। नारदजी ने अपनी ओर से भी इस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। हिमवान राजी हो गए। उन्होंने स्वीकृति दे दी।
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नारदजी ने कहा- भगवान विष्णु से होगा विवाह
देवर्षि नारद पार्वती के पास जाकर बोले-उमे! छोड़ो यह कठोर तपस्या, तुम्हें अपनी साधना का फल मिल गया। तुम्हारे पिता ने भगवान विष्णुके साथ तुम्हारा विवाह पक्का कर दिया है। इतना कहकर नारदजी चले गये। उनकी बात पर विचार करके पार्वती जी के मनमें बड़ा कष्ट हुआ। वे मूच्छित होकर गिर पड़ीं। सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने उनसे अपना शिव विषयक अनुराग सूचित किया। सखियां बोलीं- तुम्हारे पिता तुम्हें लिवा जाने के लिए आते ही होंगे। जल्दी चलो, हम किसी दूसरे गहन वन में जाकर छिप जायें।
देवी उमा कन्दरा में चली गईं
ऐसा ही हुआ। उस वन में एक पर्वतीय कन्दरा के भीतर पार्वती ने शिवलिङ्ग बनाकर उपासना पूर्वक उसको अर्चना आरम्भ की। उससे सदाशिव का आसन डोल गया। वे रीझकर पार्वती के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें पत्नी रूप में वरण करने का वचन देकर अन्तर्धान हो गए। तत्पश्चात् अपनी पुत्री का खोज करते हुए हिमवान भी वहां आ पहुंचे और सब बातें जानकर उन्होंने पार्वती का विवाह भगवान शंकर के साथ ही कर दिया। अन्ततः ‘बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥’ पार्वती के इस अविचल अनुराग की विजय हुई। देवी पार्वती ने भाद्र शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में आराधना की थी, इसीलिए इस तिथि को यह व्रत किया जाता है।
तभी से भाद्रपद शुक्ल तीज को स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिए तथा कुमारी कन्याएं अपने मनोवाञ्छित वर की प्राप्ति के लिए हरितालिका (तीज) का व्रत करती चली आ रही हैं। ‘आलिभिर्हरिता यस्मात् तस्मात् सा हरितालिका’ सखियोंके द्वारा हरी गयी – इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्रत का नाम हरितालिका हुआ। इस व्रत के अनुष्ठान से नारी को अखण्ड सौभाग्य प्राप्ति होती है।
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