आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को पुत्र के आयुरारोग्य लाभ तथा सर्वविध कल्याण के लिए जीवत्पुत्रिका- जितिया या जीमूतवाहनव्रत का विधान धर्मशास्त्रकारों ने निर्दिष्ट किया है। प्रायः स्त्रियां इस व्रत को करती हैं। प्रदोषव्यापिनी अष्टमी को अङ्गीकार करते हुए आचार्यों ने प्रदोषकाल में जीमूतवाहन के पूजन का विधान स्पष्ट शब्दों में किया है।
प्रदोषसमये स्त्रीभिः पूज्यो जीमूतवाहनः । यदि दो दिन प्रदोषव्यापिनी अष्टमी हो तो पर दिन को ही ग्राह्य करना चाहिए। फिर यदि सप्तमी उपरान्त अष्टमी हो तो वह भी ठीक है- सप्तम्यामुदिते सूर्ये परतश्चाष्टमी भवेत् । तत्र व्रतोत्सवं कुर्यान्न कुर्यादपरेऽहनि ॥ अष्टमी तिथि के बाद में पारणा करनी चाहिए – ‘पारणं तु परदिने तिथ्यन्ते कार्यम्।’
कब है जीवित्पुत्रिका 2024 का व्रत
पंचांग के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि की शुरुआत 24 सितंबर को दोपहर 12 बजकर 36 मिनट से हो रही है और 25 सितंबर को दोपहर 12 बजकर 11 मिनट पर यह खत्म हो रही है। अतः उदया तिथि के नियम को मानते हुए जितिया या जीवित्पुत्रिका का व्रत 25 सितंबर 2024 को ही रखा जाएगा। पारण 26 सितंबर को सुबह सूर्योदय के बाद में किया जाएगा।
जितिया व्रत 2024 का नहाय-खाय
किसी भी व्रत से एक दिन नहाय-खाय करने की परंपरा है। जितिया के लिए नहाय-खाय मंगलवार यानी 24 सितंबर 2024 को है। इस दिन नित्यक्रिया से निवृत होकर स्नान करके सात्विक भोजन करना चाहिए।
कैसे करें जीवित्पुत्रिका का व्रत
पवित्र होकर संकल्प के साथ व्रती प्रदोषकाल में गाय के गोबर से अपने प्राङ्गणको उपलिप्त कर परिष्कृत करे तथा छोटा-सा तालाब भी जमीन खोदकर बना लें। तालाब के निकट एक. पाकड़ की डाल लाकर खड़ा कर दें। शालिवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की कुशनिर्मित मूर्ति जल (या मिट्टी) के पात्र में स्थापित कर पीली और लाल रूई से उसे अलङ्कृत करें तथा धूप, दीप, अक्षत, फूल, माला एवं विविध प्रकार के नैवेद्यों से पूजन करें।
मिट्टी तथा गाय के गोबर से चिल्ली या चिल्होड़िन (मादा चील) और सियारिन की मूर्ति बनाकर उनके मस्तकों को लाल सिन्दूर से भूषित कर दें। अपने वंशकी वृद्धि और प्रगति के
लिए उपवास कर बांस के पत्रों से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर व्रत-माहात्म्य की कथा का श्रवण करना चाहिए। अपने पुत्र-पौत्रों की लंबी आयु एवं सुन्दर स्वास्थ्य की कामना से महिलाओं को विशेषकर सधवा को इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए।
भगवान शिव ने सुनाई देवी को जीवित्पुत्रिका की कथा
व्रतमाहात्म्य की कथा-प्रस्तुत कथा के वक्ता वैशम्पायन ऋषि हैं। बहुत पहले रमणीय कैलास पर्वत के शिखर पर भगवान् शंकर और माता पार्वती प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए थे। परम दयालु माता गौरी ने महादेवजी से पूछा- प्रभो! किस व्रत एवं पूजन से सौभाग्यशालिनी नारियों के पुत्र जीवित एवं चिरञ्जीवी बने रहते हैं? कृपया उसके बारे में और उसकी कथा के विषय में बताने का कष्ट करें।
त्रिकालज्ञ भगवान् शंकर ने जीवत्पुत्रिका व्रत- जितियाव्रतके विधान, महत्त्व तथा माहात्म्यकी कथा बताते हुए कहा- दक्षिणा पथ में समुद्र के निकट नर्मदा के तटपर काञ्चनावती नामकी एक सुन्दर नगरी थी। वहां के राजा मलयकेतु थे। उनके पास चतुरङ्गिणी सेना थी। उनकी नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। नर्मदा के पश्चिम तटपर बाहूट्टार नामक एक मरुस्थल था। वहां घाघू नाम वाला एक पाकड़ का पेड़ था।
उसकी जड़ में एक बड़ा-सा कोटर था। उसमें छिपकर एक सियारिन रहती थी। उसकी डाल पर घोंसला बनाकर एक चिल्होड़िन भी रहती थी। रहते-रहते दोनों में मैत्री हो गयी थी। संयोगवश उसी नदी के किनारे उस नगर की सधवा स्त्रियां अपने पुत्रों के आयुष्य और कल्याण की कामना से जीमूतवाहन का व्रत एवं पूजन कर रही थीं। उनसे सब कुछ
जानकर चिल्होड़िन और सियारिनने भी व्रत करने का संकल्प कर लिया।
सियारिन ने तोड़ा व्रत
व्रत करने के कारण भूख लगनी स्वाभाविक थी। चिल्होड़िन ने भूख सहनकर रात बिता ली परंतु सियारिन भूख से छटपटाने लगी। वह नदी के किनारे जाकर एक अधजले मुर्दे का मांस भरपेट खाकर और पारणा के लिए मांस के कुछ टुकड़े लेकर फिर कोटर में आ गयी। डाल के ऊपर से चिल्होड़िन सब कुछ देख रही थी। चिल्होड़िन ने नगर की सधवा औरतों से अङ्कुरित केलाय (मटर या अकुड़ी) लेकर पारणा ठीक से कर ली।
सियारिन बहुत धूर्त थी और चिल्होड़िन अधिक सात्त्विक विचारवाली थी। कुछ समय के बाद दोनों ने प्रयाग आकर तीर्थ सेवन शुरू किया। वहीं पर चिल्होड़िन ने ‘मैं महाराजके महामन्त्री बुद्धिसेन की पत्नी बनूंगी’ – इस संकल्प एवं मनोरथ के साथ अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उधर सियारिन ने भी – ‘मैं महाराज मलयकेतुकी रानी बनूंगी’ – इस मनोरथ और संकल्प के साथ अपने प्राणों का त्याग किया।
मनुष्य जाति में हुआ दोनों का जन्म
दोनों कन्याओं में नाग कन्या और देव कन्या के असाधारण गुण लक्षित हो रहे थे। चिल्होड़िन का नाम जहां शीलवती रखा गया वहीं सियारिन का नाम कर्पूरावती। शीलवती का विवाह मन्त्री (बुद्धिसेन) से हुआ और कर्पूरावती का विवाह राजा मलयकेतु के साथ। राजा और मन्त्री दोनों धर्मात्मा एवं न्यायवादी थे। प्रजा को राजा अपने पुत्र के समान मानता था और प्रजा भी उन्हें खूब चाहती थी।
समय के अनुसार शीलवती और कर्पूरावती को सात-सात पुत्र हुए। शीलवती के सातों पुत्र जीवित थे पर कर्पूरावती के सातों पुत्र एक-एक करके काल के गाल में समाते गये। कर्पूरावती बहुत दुःखी रहती थी। उधर शीलवती के सभी पुत्र हमेशा राजा की सेवा में हाजिर रहते थे। वे सब बड़े विनयी और राजा के आज्ञाकारी थे। रानी उन्हें देखकर जलती रहती थी। उसे ईर्ष्या होती थी कि शीलवती के सभी पुत्र जीवित हैं।
राजा ने की शीलवती के पुत्रों की हत्या
एक दिन रानी ने रूठकर खाना-पीना और बोलना भी बंद कर लिया, राजा से दूर किसी एकान्त कोठरी में पड़ी हुई थी। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वे उसे मनाने गये तब उसने उनकी एक भी नहीं सुनी। आखिर परेशान राजाने कहा कि तुम जो कुछ कहोगी, मैं वही करूंगा। तुम उठो और खाना खाओ। यह सुनकर उसने कहा कि यदि यह सत्य है तो अमुक दरवाजे के पास एक चक्र रखा हुआ है। आप शीलवती के सभी पुत्रों का सिर काटकर ला दीजिए। ऐसा नहीं चाहते हुए भी राजा ने आखिर वही किया। जो रानी चाहती थी।
रानी ने सात (बांस के बने) डाला या बरतन में एक-एक सिर रखकर और उसे कपड़े से ढंककर शीलवती के पास भेजा। इधर जीमूतवाहन ने उनकी गर्दन को मिट्टी से जोड़कर एवं अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित कर दिया। सौगात के रूप में भेजे गये सभी सिर ताल के फल बन गये। यह जानकर रानी तो और आगबबूला हो गयी। वह क्रोध के मारे अत्यन्त कुपित हो गयी और डंडा लेकर शीलवती को मारने पहुंच गयी, लेकिन भगवान की दया से शीलवती को देखते ही उसका क्रोध शान्त हो गया।
शीलवती उसे लेकर नर्मदा के तटपर चली गयी। दोनों ने स्नान किया। बाद में शीलवती ने पूर्वजन्म की याद दिलाते हुए उसे बताया कि तुमने सियारिन के रूप में व्रत को भंग कर मुर्दा खा लिया था। उसे सब कुछ याद आ गया। ग्लानि और संताप से उसके प्राण निकल गये। राजा को जब यह मालूम हुआ तो उसने अपना राज्य मन्त्री को सौंप दिया और स्वयं तप करने चला गया। शीलवती अपने पति और पुत्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगी। जितिया व्रत के प्रभाव से उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो गये।
इस प्रकार माहात्म्य की कथा बताने के अनन्तर भगवान् शंकर ने कहा कि जो सौभाग्यवती स्त्री जीमूतवाहन को प्रसन्न करने के लिए व्रत एवं पूजन करती है एवं कथा सुनकर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है, वह अपने पुत्रों के साथ सुखपूर्वक समय बिताकर अन्त में विष्णुलोक प्रस्थान करती है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेख लोक मान्यताओं पर आधारित है। इस लेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए ज्योतिष सागर उत्तरदायी नहीं है।