उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में 13 जनवरी से महाकुंभ का शुभारंभ हो रहा है। इस अद्भुत महाकुंभ के लिए देश ही नहीं दुनिया भर से साधु संतों और लोगों का आगमन शुरू हो चुका है। 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित 13 अखाड़े भी महाकुंभ के लिए पधार चुके हैं। इसके अलावा नागा साधुओं की टोली भी महाकुंभ में सम्मिलित होने के लिए यहां पर डेरा डाल चुकी है। इन अखाड़़ों और नागा साधुओं के अलावा लाखों साधु संत भी स्नान, ध्यान और कल्पवास के लिए कुंभ मेले में आ चुके हैं। 13 जनवरी से 26 फरवरी तक चलने वाला यह कुंभ साधारण कुंभ नहीं है।
यह महाकुंभ है जो 144 वर्षों में लगता है। ऐसी मान्यता है कि हर 6 वर्ष में अर्द्ध कुंभ मेले का आयोजन होता है जो मात्र दो स्थानों हरिद्वार (उत्तराखंड) और प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) पर लगता है। इसके बाद कुंभ मेला हर 12 वर्ष में आयोजित होता है जो चारों स्थान हरिद्वार (उत्तराखंड- गंगा नदी), प्रयागराज (उत्तर प्रदेश – गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम), उज्जैन (मध्य प्रदेश- शिप्रा नदी) और नासिक (महाराष्ट्र- गोदावरी नदी) में लगता है। इसके अलावा पूर्ण कुंभ मेला 12 वर्ष में एक बार आयोजित होता है लेकिन यह सिर्फ प्रयागराज में ही होता है। इसके बाद 12 पूर्ण कुंभ के बाद आता है महाकुंभ जो केवल प्रयागराज में आयोजित होता है।
महामहाकुंभ का महत्व
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, महाकुंभ तब होता है जब देवगुरु बृहस्पति वृषभ राशि में और ग्रहों के राजा सूर्य मकर राशि में होते हैं। इस दौरान बृहस्पति की दृष्टि सूर्य पर पड़ती है जिससे यह समय बहुत शुभ हो जाता है। प्रत्येक 12 वर्ष में बृहस्पति अपनी 12 राशियों की यात्रा पूरी कर वृषभ राशि में लौटते हैं, तब महाकुंभ का आयोजन होता है। लेकिन जब यह चक्र 12 बार पूरा होता है यानी 144 साल बाद तब यह पूर्ण महाकुंभ होता है।
ज्योतिष गणना के क्रम में कुंभ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है
- बृहस्पति के कुंभ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा-तट पर कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
- बृहस्पति के मेष राशि चक्र में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में आने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
- बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
- बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुंभ पर्व का आयोजन होता है।
कुंभ का पौराणिक इतिहास
कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश है और इसका संबंध अमृत कलश से है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब देवासुर संग्राम के बाद दोनों पक्ष देवता और असुर समुद्र मंथन को राजी हुए थे। मथना था समुद्र तो मथनी और नेति भी उसी हिसाब की चाहिए थी। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया और वासुकी नाग उसकी नेति बनाई गई।
इस समुद्र मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई जिन्हें देवता और असुरों के बीच परस्पर बांट लिया गया। इसके बाद समुद्र से अमृत कलश बाहर निकाला गया जिसे भगवान धन्वन्तरि ने देवताओं को दे दिया जिससे असुर क्रोधित हो गए है। फिर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान विष्णु ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर सबको अमृत-पान कराने की बात कही और अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौंपा।
अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा हेतु भाग रहे थे तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी- जो वर्तमान में हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज। चूंकि विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चंद्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुंभ एवं मेष) में विचरण के कारण ये सभी कुंभ पर्व के द्योतक बन गये।
इस प्रकार ग्रहों एवं राशियों की सहभागिता के कारण कुम्भ पर्व ज्योतिष का पर्व भी बन गया। जयंत को अमृत कलश को स्वर्ग ले जाने में 12 दिन का समय लगा था और माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर होता है। यही कारण है कि कालान्तर में वर्णित स्थानों पर ही ग्रह-राशियों के विशेष संयोग पर 12 वर्षों में कुंभ मेले का आयोजन होने लगा।
कल्पवास का महत्व और उसके 21 नियम
कुंभ मेले के दौरान संगम तट पर कल्पवास का विशेष महत्त्व है। संगम के तट पर ध्यान और वेदों के अध्ययन को कल्पवास कहते हैं। इसका विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है धार्मिक ग्रंथों जैसे पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में इसका उल्लेख मिलता है। इनके अनुसार, कल्पवास की अवधि पौष मास की शुक्लपक्ष एकादशी से शुरू होकर माघ मास की एकादशी तक मानी जाती है। पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की संपूर्ण प्रक्रिया और इसके नियमों का विस्तृत वर्णन किया है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को 21 नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम हैं:
- सत्य बोलना।
- अहिंसा का पालन करना।
- इन्द्रियों को संयमित रखना।
- सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव रखना।
- ब्रह्मचर्य का पालन करना।
- व्यसनों का त्याग करना।
- सूर्योदय से पहले उठना।
- दिन में तीन बार गंगा स्नान करना।
- त्रिकाल संध्या करना।
- पितरों का पिंडदान करना।
- अपनी सामर्थ्य अनुसार दान देना।
- मन में जप और ध्यान करना।
- सत्संग में भाग लेना।
- क्षेत्र संन्यास (संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना)।
- परनिंदा न करना।
- साधु-संतों की सेवा करना।
- जप और संकीर्तन करना।
- दिन में एक बार भोजन करना।
- भूमि पर सोना।
- अग्नि सेवन (आग जलाना) न करना।
- इन सभी नियमों में ब्रह्मचर्य, व्रत और उपवास, देव पूजा, सत्संग, और दान का विशेष महत्त्व है।
कल्पवास का उद्देश्य आत्मशुद्धि, मनोबल का विकास और आध्यात्मिक उन्नति है। यह व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर धर्म और साधना में लीन होने का अवसर प्रदान करता है।
प्रयागराज महाकुंभ की स्नान की प्रमुख तिथियां
पौष पूर्णिमा
13 जनवरी 2025
मकर संक्रांति
14 जनवरी 2025
मौनी अमावस्या
29 जनवरी 2025
वसंत पंचमी
03 फरवरी 2025
माघी पूर्णिमा
12 फरवरी 2025
महा शिवरात्रि
26 फरवरी 2025
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेख लोक मान्यताओं पर आधारित है। इस लेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए ज्योतिष सागर उत्तरदायी नहीं है।